बाबरी विध्वंस: बिहार लौटे कारसेवकों के हाथों में थीं ईंटें: जश्न मनाने में चली गई थी जान, जानिए विध्वंस की आंखों देखी कहानी

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पटना43 मिनट पहलेलेखक: शालिनी सिंह

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श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या कारसेवा के लिए 29 नवंबर 1992 को बिहार से पहला जत्था जिसमें चार लोग डॉ. हरिश्चंद्र भगत, लखीसराय, अरुण कुमार सिन्हा, आरा, राम केवल शर्मा,आरा तथा आलोक बेडिया,आरा, फरक्का एक्सप्रेस से अयोध्या जी के लिए प्रस्थान किए थे।

कारसेवक जश्न में डूबे थे, ऐसा कि बार-बार कहने पर भी मुख्य गुंबद के नीचे से नहीं हटे। अचानक हथौड़े के वार से बीच वाला गुंबद टूटा और उसी मलबे में दब गए बिहार के मोकामा के कारसेवक दिनेश चंद्र सिंह। 29 साल पहले हुए बाबरी विध्वंस की इस कहानी को भास्कर से साझा किया नालंदा के कारसेवक सुनील कुमार ने। सुनील कुमार की तरह ही 6 दिसंबर से जुड़ी तमाम कहानियां बिहार के कारसेवकों और उस घटना से अलग-अलग तरह से जुड़े लोगों की यादों मे आज भी ताजा है।

पूर्व आईपीएस किशोर कुणाल।

पूर्व आईपीएस किशोर कुणाल।

मस्जिद टूटा तो तब अच्छा नहीं लगा था : आचार्य किशोर कुणाल
पूर्व आईपीएस आचार्य किशोर कुणाल, श्री राम जन्मभूमि पुनरोद्धार समिति की ओर से अयोध्या विवाद के मुकदमे में पक्षकार रह चुके हैं। लेकिन, 1992 की घटना में हुए बाबरी विध्वंस को लेकर साफ कहते हैं, तब मैं इस घटना से खुश नहीं था। लेकिन, अब लगता है उस दिन बाबरी मस्जिद नहीं टूटता तो आज वहां भव्य मंदिर नहीं बन रहा होता। कुणाल के मुताबिक उसी विध्वंस के दौरान वहां मंदिर के शिलालेख मिले थे और तब इस विश्वास को प्रमाण मिला कि ये भूमि भगवान रामलला की है। कुणाल कहते हैं तब मेरी पोस्टिंग केन्द्र में थी, सच कहूं तो मुझे कभी ये नहीं लगा था कि इतनी आसानी से बाबरी मस्जिद गिर जाएगा। कुणाल के मुताबिक उन्हें एक पुलिस अधिकारी के तौर पर गोलियां चलने और कारसेवकों की लाशें बिछने का डर था और इसीलिए उन्होंने केंद्र से अपनी पोस्टिंग वापस बिहार करा ली थी। उनकी मानें तो इसकी पूरी संभावना थी दिल्ली से उन्हें वहां भेजा जाता। वो कहते हैं कि मैं कारसेवकों की लाशें नहीं देखना चाहता था।

कारसेवक दिनेश चंद्र सिंह।

कारसेवक दिनेश चंद्र सिंह।

उस दिन बिहार लौटे कारसेवकों के हाथों में थीं मस्जिद की ईंटें
तारीख थी 6 दिसंबर 1992, वक्त था सुबह के करीब नौ बजे का। बाबरी मस्जिद से थोड़ी दूरी पर कारसेवकों की भीड़ उमड़ रही थी। पूरे इलाके में ‘जय श्री राम’ की गूंज थी। 10 बजे के करीब सभी बड़े नेता मंच पर पहुंच चुके थे। माहौल जोश से भरने लगा था। 11 बजे तक कारसेवकों की एक टोली मस्जिद के गुंबद पर चढ़ने लगी। लोग मस्जिद के ऊपर चढ़कर उसे हथौड़े, रॉड जैसे औजार से तोड़फोड़ करने में जुट गए। 7 दिसंबर की सुबह तक वहां मस्जिद नहीं थी। धरातल बराबर हो चुकी थी और मस्जिद की ईंटे तक गायब थीं। पता ये चला कि कारसेवक सेना की टुकड़ियां आने की खबर सुन रात में ही निकल गए थे। साथ में मस्जिद की ईंटे भी ले गए थे। कारसेवक सुनील कुमार और आचार्य किशोर कुणाल बताते हैं उस दिन बिहार लौटे कारसेवकों के हाथों में मस्जिद की ईंटें और पत्थर थीं। लोग उसे विजय चिह्न के तौर पर साथ ले आए थे। चोटें ऐसे दिखला रहे थे मानों युद्ध जीत कर लौटे हों।

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