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गया3 घंटे पहले
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गया के आमस में ठेला पर लादकर कोरोना से मरे व्यक्ति को श्मशान ले जाते परिजन।
गया जिले के अति नक्सलप्रभावित इलाका आमस ब्लॉक में इंसान के साथ-साथ संवेदना भी मरती दिखी। जिस गांव वालों के सुख-दुख में बुढ़ापे तक साथ निभाया, कोरोना से मरने पर उस गांव में एक बुजुर्ग को 4 कंधे नसीब नहीं हुए। आमस गांव के रहने वाले कोरोनो पेशेंट कामेशवर चौधरी की मौत की खबर सुनते ही गांव के लोगों ने अपने-अपने पांव पीछे खींच लिए। उन्हें न कोई कंधा देने आया और न ही उन्हें कोई श्मशान घाट ले जाने के लिए आगे आया।
गांव के लोगों की इस असंवेदनशीलता से हैरान गांव के ही दो लड़के संतोष कुमार गुप्ता और मुन्ना चौधरी आगे आए। वृद्ध के दामाद अरविंद कुमार चौधरी और बेटी अर्चना चौधरी के साथ शव को ठेले पर लादकर श्मशाान घाट गए और वहीं शव को दफन कर दिया। दफन करने के पूर्व मृतक कामेश्वर चौधरी की चारों बेटियों ने बाजार से PPE किट खरीदी और फिर खुद पहने और गांव के युवकों को दिए। इसके बाद गांव से ही ठेले पर लादकर शव को श्मशान घाट ले गए।
इस गांव में संक्रमण से मरने पर जलाया नहीं, दफनाया जाता है
कामेश्वर चौधरी के शव का हिंदू रीति-रिवाज से दाह संस्कार किया जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा उस वृद्ध के घरवाले नहीं कर सके। वजह गांव में बरसों से यह परंपरा चली आ रही है कि संक्रमण से संबंधित बीमारी से मरनेवालों का दाह संस्कार नहीं, बल्कि उसे दफन किया जाएगा। इसी वजह से कोरोना बीमारी से मरे वृद्ध को दफनाया गया। गांव वालों ने बताया कि गांव में यदि कोई TB की बीमारी से मरता है तो उसे भी दफन किया जाता है।
लोगों ने मृतक के घर की गली से जाना छोड़ा
गांववालों ने बताया कि कामेश्वर चौधरी होम आइसोलेटेड थे और घर में ही रह कर इलाज करा रहे थे। उनका इलाज सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के आमस से चल रहा था। उन्होंने पहली बार 7 मई को अपना इलाज कराया था। वह 80 वर्ष के थे। कामेश्वर चौधरी की मौत की खबर सुनते ही गांव वालों ने उस गली से आना-जाना छोड़ दिया है। गांव लोग अब उस गली से भी दूरी बनाए हुए हैं। गांव तो गांव पड़ोस वाले भी कामेश्वर चौधरी के घर से दूरी बनाए हैं।
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