जनता एक्सप्रेस का बांस युद्ध: सीट के लिए महायुद्ध🚆🔥

बिहार की तपोभूमि पर “जनता एक्सप्रेस” में रोज़ एक ऐतिहासिक युद्ध लड़ा जाता है—बैठे हुए योद्धाओं और बैठने की कोशिश करते योद्धाओं के बीच! जैसे ही ट्रेन प्लेटफॉर्म पर रुकती है, रणभूमि तैयार हो जाती है।

युद्ध का पहला चरण: घुसने की रणनीति

जो पहले से अंदर हैं, वे सीट पर जमकर बैठे रहते हैं, पैरों को फैला कर एक गुप्त किले की तरह। वहीं, बाहर खड़े योद्धा दरवाजे के पास धक्का-मुक्की करते हुए सीट जीतने की जुगत लगाते हैं। कुछ तेज़ खिलाड़ी खिड़की से बैग फेंककर जगह घेरने की चाल चलते हैं।

युद्ध का दूसरा चरण: जुबानी तीर और घूरने के भाले

जब लड़ाई आर-पार की होने लगती है, तो शब्दों के बाण छोड़े जाते हैं—
👉 “भाई साहब, थोड़ा सरक जाइए!”
👉 “पहले से बैठे हैं, नहीं मिलेगा!”
👉 “आपके बाप की ट्रेन है क्या?”
इस बीच, कुछ अनुभवी योद्धा “टिकट है, लेकिन सीट नहीं मिली” जैसे ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल करते हैं, तो कुछ गहरी सांस लेकर अपना हक जताने की मुद्रा में आ जाते हैं।

युद्ध का तीसरा चरण: धैर्य और कूटनीति

कुछ यात्री हार मानकर दरवाजे के पास खड़े हो जाते हैं, तो कुछ अगले स्टेशन पर चालाकी से कोई कोना घेरने की तैयारी करते हैं। बुजुर्ग और महिलाएं अपने हथियार के रूप में “थोड़ा जगह दीजिए” वाली मासूम अपील का इस्तेमाल करती हैं, जो कभी-कभी असर कर जाती है।

निष्कर्ष: जीत और हार की कहानी

आखिर में, कुछ विजयी योद्धा अपनी सीट पक्की कर लेते हैं, तो कुछ “अगली बार और तेज़ रहना है” की सीख लेकर सफर जारी रखते हैं। लेकिन बिहार की किसी भी लोकल या लंबी दूरी की ट्रेन में, यह युद्ध कभी खत्म नहीं होता—हर दिन नए रणबांकुरे उतरते हैं और नए दांव-पेच आज़माते हैं! 😆🚉🔥